
- आज भारतीय सिनेमा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुका है
- भारतीय फ़िल्में रही हैं करोड़ों का कारोबार
आकाश शर्मा (पोल टॉक में कर रहे इंटर्नशिप) | जयपुर
दादा साहेब फाल्के ने 1913 में भारत की पहली फ़िल्म राजा हरीशचंद्र (मूक फ़िल्म) की शुरुआत की, तब से 21वीं सदी के दो दशक खत्म हो जाने तक भारतीय सिनेमा ने अनेक बदलाव देखे हैं। एक समय था जब फ़िल्म के निर्माता घर-जायदाद को गिरबी रखकर फ़िल्में बनाया करते थे और फ़िल्म न चलने पर कर्ज में डूब जाया करते थे। आज भारतीय सिनेमा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुका है। भारतीय फ़िल्में करोडों का कारोबार करती हैं। इस बदलाब के साथ-साथ फ़िल्मों में और भी छोटे-बड़े बदलाब आए हैं।
फ़िल्म की कहानियों में आया बड़ा अंतर
पहले फ़िल्मों की कहानियाँ ज्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित हुआ करती थीं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पहली ही फ़िल्म राजा हरीशचंद्र थी। जब सबाक फ़िल्में बनी तब उन फ़िल्मों में अधिकांश की पटकथा काल्पनिक प्रेम कहानी पर ही लिखी जाती थी। इन फ़िल्मों ने धीरे-धीरे समाज में अपना दर्शक वर्ग बना लिया था। बाद में कुछ फ़िल्मों की कहानियाँ ऐतिहासिक आधार पर भी लिखी गईं। जैसे- के. आसिफ़ की फ़िल्म मुगल-ए-आजम आदि। साथ ही साहित्य से भी कहानियाँ ली गईं। बिमल राॅय ने शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास देवदास की कहानी पर फ़िल्म बनाई। इस तरह से ही पचास के दशक के अंत तक फ़िल्मों की कहानियाँ हुआ करती थीं।
60 के दशक में, फ़िल्मकारों ने नए-नए प्रयोग किए। अब फ़िल्मों की कहानियाँ मौजूदा दौर की समस्याओं (बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा आदि) से जुड़ी होती थीं। इन फ़िल्मों का दौर नब्बे के दशक तक जारी रहा। एक लम्बे समय तक कहानियों में फ़िल्म के नायक को ताकतवर दिखाया जाता रहा। जिसमें नायक लगभव हर फ़िल्म में खलनायक से लडाई करता था। नब्बे के दशक के मध्य के बाद फ़िल्मों की कहानियाँ फ़िर से प्रेम कहानियों के आधार पर लिखी जाने लगीं और यह सिलसिला भी लम्बा चला। आज भारतीय फ़िल्मों की कहानियाँ हर मुद्दे पर लिखी जाती हैं और अलग-अलग कहानियाँ लिखी जाती हैं।
संवाद और गीतों के लेखन में बदलाव
पुरानी फ़िल्मों के गीत और संवाद बहुत ही पुस्तकीय भाषा के लिखे जाते थे। उन गीत और संवाद में न केवल किरदार की बात हुआ करती बल्कि समाज को प्रेरित करने वाला संदेश भी होता था। गीतकार शैलेन्द्र ने अपने गीतों से बड़ी-बड़ी बातें कही और हर गीत में प्रेरणादायक बातें कही। इनके दौर के ही और बहुत से गीतकारों (भरत व्यास, साहिर लुधियानवी, शकील बदायूँनी, नीरज और मजरूह सुल्तानपुरी आदि) ने अनेक तरक के संदेश देने का प्रयास किया।
सत्तर के दशक में कादर खान और सलीम-जावेद जैसे लेखकों ने फ़िल्मों के संवाद को आम बोलचाल की भाषा जैसा बना दिया। इस तरह धीरे-धीरे संवाद की भाषा बदल गई और आज संवाद में अश्लील भाषा भी लिखी जाती है।
70 के दशक से ही गीतों की भाषा बदली। आनंद बक्सी और संतोष आनंद जैसे गीतकारों ने ही गीतों को संवाद की तरह बदल दिया। बाद में समीर ने भी बहुत ही आम बोलचाल की भाषा में गीत लिखे। आज के दर्शक वर्ग और निर्माताओं की माँग के आधार पर ही गीत भी संवाद की तरह लिखे जाते हैं। नई भारतीय फ़िल्मों की भाषा में अंग्रेजी भाषा का मिश्रण भी मिलता है। हालाँकि, आज भी मनोज मुन्तशिर और इरशाद कामिल जैसे लेखक मौजूद हैं, जो अच्छा कार्य करते हैं।
संगीत के स्थान पर आया रैप रॉक
एक दौर था जब पुरानी फ़िल्मों में अभिनेता भी गायक होता था। लेकिन पार्श्वगायकी के कारण अभिनेता और गायक अलग-अलग होने लगे। पहले फ़िल्मों में संगीतकार धीमा और मधुर संगीत रखा करते थे। इसमें संगीतकार, गायक और गीतकार तीनों ही महत्वपूर्ण योगदान दिया करते थे। गायक खुद की गायकी में अभिनेता के किरदार की अभिव्यक्ति करने का प्रयास करता था।
गायकों में आया बदलाव – मोहम्मद रफ़ी। उनके साथ ही मुकेश, किशोर कुमार, लता मंगेशकर, आशा भोसलें और महेन्द्र कपूर ने भी शुरुआती दौर में अपनी गायकी से एक अलग छाप छोड़ी। बाद में कुमार शानू, उदित नारायण, सोनू निगम ने भी अपने अपने दौर में पार्श्वगायकी को बखूबी किया। आज इस दौर में भी अरिजीत सिंह पार्श्वगायकी करते हैं। आज फ़िल्मों में पारम्परिक संगीत के बजाय रैप और राॅक म्यूजिक होता है। यह गाए जाने की दृष्टि से बहुत आसान है। अभिनेता खुद भी इसे गाते हैं।