- अर्थव्यवस्था के मूल चरित्र में है समाधान
- श्रम आधारित उद्योग की ही विकल्प
लॉकडाउन (LOCKDOWN) के बाद निश्चित रूप से विपरीत परिस्थितियां खड़ी होंगी लेकिन हर तरह की समस्या का समाधान हमारी अर्थव्यवस्था के मूल चरित्र में निहित है। यह वक़्त श्रम आधारित उद्योगों की तरफ वापस जाने का है। लॉकडाउन न सिर्फ समस्याए बल्कि नए अवसर भी मिलेंगे जिनका इस्तेमाल कर जल्दी ही खुद को और बेहतर बना सकते हैं। लॉकडाउन (LOCKDOWN) से बढ़ती बेरोजगारी प्रति पलायन और बदलती अर्थव्यवस्था में असंगठित मजदूरों की स्थिति जैसे मुद्दों पर पोलटॉक के विशेष संवाददाता अभिषेक मिश्र ने भारतीय मजदूर संघ के महासचिव विरजेश उपाध्याय से बातचीत की.
सवाल: बेरोजगारी पहले से ही एक बड़ी समस्या है। कोरोना महामारी ने और संकट खड़ा कर दिया है। आपके विचार से इस वैश्विक समस्या का क्या समाधान है ?
विरजेश उपाध्याय : वास्तव में बेरोजगारी शब्दावली को जिस रूप में प्रयोग किया जाता है उसे फिर से समझने की जरूरत है। रोजगार का मतलाब सिर्फ नौकरी नही है। दुनिया में अलग अलग देशों की आर्थिक स्थिति अलग अलग है। भारत के संदर्भ में बात करे तो हमारा देश स्वरोजगार वाला देश है। हम शुरू से ही इनफॉर्मल अर्थव्यवस्था हैं। जबकि हमने गलती से खुद को औद्योगिक राष्ट्र की तरह बनाना शुरू कर दिया जोकि भारत का मूल चरित्र नही है। पिछले आर्थिक सर्वे के अनुसार हमारे देश में आधे से ज़्यादा जीविका कृषि से है। यदि देश के नीति निर्धारक भारत का मौलिक चरित्र को ध्यान में रख कर आगे की रणनीति बनाये तो हम बेरोजगारी से बहुत आसानी से उबार जाएंगे। यह हमारे लिए संकट का कारण नही है। हां, दुनिया के बाकी देशों के लिए यह बड़ी समस्या हो सकती है। मैं फिर से अपनी बात को दोहराऊंगा की हमे आज बेरोजगारी का मतलब लोगों को फिर से समझने की जरूरत है। इस प्रश्न में निहित समस्या का समाधान देश की आर्थिक व्यवस्था के मूल चरित्र में ही मिलेगा।
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सवाल : असंगठित क्षेत्र के मजदूर भारी तादाद में शहर से वापस अपने गांव जा रहे हैं। इससे निबटने का क्या उपाय हो सकता है ?
विरजेश उपाध्याय : यह प्रश्न पहले प्रश्न से जुड़ा हुआ है। मैंने कहा कि हम हमारी अर्थव्यवस्था के मूल चरित्र में वापस जाएंगे। इस लॉकडाउन (LOCKDOWN) के कारण हमे एक अलग प्रकार का अवसर मिल रहा है। हमारी अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान है। देश के इंडस्ट्री प्रधान होने के बाद जब मज़दूए गाँवों से शहरों में आये तो शहरों का इंफ्रास्ट्रक्चर चरमरा गया। लॉकडाउन के बाद अब लोग फिर से गावो में जाएंगे और हमें एक नया अवसर मिलेगा। हम आर्गेनिक खेती की तरफ बढ़ सकते हैं। हम बहुत से दूसरे कमर्शियल उत्पादन को चुन सकते हैं। भारत की अर्थव्यवस्था का आधार ही कृषि है। कृषि में ही सैकड़ों हज़ारों अवसर उपलब्ध किये जा सकते हैं। तथाकथित अर्थशास्त्री भारत को जानते ही नही, हमारे देश को भी यूरोपियन परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। भारत के संदर्भ में बनी बनाई संकल्पना नही चलेगी। अर्थव्यवस्था की संरचना या मॉडल किसी देश की भौगोलिक व सामाजिक स्थिति के अनुसार निर्भर करता है। आज की परिस्थियां निश्चित रूप से हमारे लिए नए अवसर ला रही है। मैं, समझता हूं कि लोगों की प्रत्याशा या कहे कि कैलकुलेशन सही नही है। हमारी सभी समस्याओं का समाधान हमारे मूल चरित्र में ही है।
सवाल : लॉकडाउन के बाद सामाजिक दूरी बनाये रखने की अनिवार्यता के चलते 50 फीसदी लोग ही काम कर पायंगे। शेष लोगों के समायोजन का कोई रास्ता ?
विरजेश उपाध्याय : आप शायद बड़े उद्योगों के बारे में बात कर रहे हैं। भारत में आज भी बड़े पैमाने पर नौकरी और रोजगार लघु, कुटीर एवं मध्यम उपक्रम ( एमएसएमई) में है। छोटे लघु और कुटीर उद्योगों की पिछले कुछ सालों में अनदेखी की गई है। वर्ष 1991के परिदृश्य में बात करे तो बहुत सी वस्तुओं का उत्पादन इन्ही सेक्टर में होता था। मैं समझता हूं कि भारत के नीति नियंताओं को इस समय एमएसएमई और कृषि पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इससे बड़ी इंडस्ट्री से बाहर होने वाली अतिरिक्त मैन पावर और वर्क फ़ोर्स का सही उपयोग किया जा सकेगा और सामाजिक दूरी का अनुपालन भी कराया जा सकेगा। हमने श्रम प्रधान उद्योगों को पिछले 20-25 सालों में योजनापूर्वक ध्वस्त किया। पूंजी प्रधान उद्योग तकनीक आधारित होते हैं। हम जैसे ही इसे पलट देंगे हमे इसका समाधान मिल जाएगा।
सवाल : क्या इससे उत्पादन प्रभावित नहीं होगा?
विरजेश उपाध्याय : उत्पादन खपत के लिए होता है । अगर क्रेता ही न हो तो खपत का क्या होगा? ऐसी स्थिति में आर्थिक मंदी होगी जैसा कोविड के पहले आया था। रेसेशन आता है तो क्रय शक्ति घटती है। भारतीय बाजार और वर्तमान स्थिति को देखे तो बड़ी कंपनी का उत्पादन तभी खपेगा जब क्रय करने की शक्ति होगी। लघु मध्यम और कुटीर उद्योगों के लिए डोमेस्टिक सेंटर स्थापित कर पाए तभी उपभोक्ता भी मिलेगा और उत्पादन की खपत हो पाएगी। अगले कुछ सालों तक सभी लोग घरेलू बाजार पर ही ध्यान केंद्रीय करेंगे अंतररष्ट्रीय बाजार को कोई नही देखेगा। घरेलू बाजार में कोई समस्या नही होगी। इसका समाधान हमारे पास है।
सवाल : काम के निर्धारित समय (8घंटो) के पुनरसमयोजन या कहे पुनर्वितरण जैसा विकल्प कहा तक प्रभावी होगा?
विरजेश उपाध्याय : काम के घंटों के पुनर्वितरण या पुनरसमयोजन का प्रश्न काल्पनिक है। भारत मे पहले भी 3-3 पालियो में काम होता था। पहले के वक़्त में कहा जाता था कि सूरत, गुजरात और मुम्बई में रात नही होती थी। वह श्रम प्रधान टेक्सटाइल सेक्टर के उद्योग थे। भारत के लोगो मे पुरुषार्थ और उद्यम का भरपूर दम है। श्रम प्रधान उद्योगों के लिए 24 घंटों समय होता है. इस सेक्टर में चमड़ा उद्योग, वस्त्र उद्योग, फ़ूड प्रॉसेसिंग और कृषि जैसे उद्योग हैं। इस प्रश्न की कोई प्रासंगिकता नही है। व्यावहारिक रूप से ऐसा सवाल ही नही उठता है।
सवाल : कोविड-19 ने विश्व अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर दिया है। मजदूर नेता के तौर पर क्या आप विश्वस्तर पर वर्क फोर्स को नियोजित कर बेरोजगारी दूर करने की कोई संभावना देखते हैं ?
विरजेश उपाध्याय : अगले कुछ साल दुनिया को घरेलू मोर्चे पर ही काम करना होगा। तथाकथित बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों की भी कमर टूट गयी है। अगले कुछ सालों में सबको खुद को खड़ा करने पर जोर देना होगा।तत्काल जरूरी यह है कि दुनिया काभी देश पहले खुद खड़े हो। पूरी दुनिया मे देखा जाए तो भरे सबसे भाग्यशाली देश है क्योंकि हम कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था हैं इसलिए बाकी देशो की तुलना में हम समस्याओ से आसानी से पर पा जाएंगे और जल्दी सुधार होगा। भारत के पास अन्य अवसर भी आएंगे। हम बड़ी अर्थव्यवस्था हैं बड़ा बाजार होने के साथ हमारे पास अधिक उपभोक्ता हैं। निकट भविष्य में हम दुनिया के अन्य देशो को मैन पावर भी दे पाएंगे। आने वाले समय मे तकनीक से ज़्यादा वर्क फ़ोर्स की उपयोगिता बढ़ेगी। अर्थव्यवस्था का मूल सअमझने वाले लोगो को समझ मे आ गया होगा कि दुनिया के वर्क फोस को समायोजित करने के लिए ह्यूमन ऍप्लिकेश के अलावा कोई और साधन नही है। तकनीक ने मैन पावर को काम से बाहर किया है। भारत “प्रोडक्शन बाई मासेस” का पक्षधर रहा है। मुझे विश्वास है कि भरे आने वाल्व समय में न सिर्फ अर्थव्यवस्था बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी दुनिया का नेतृत्व करेगा।
इंटरव्यू के लिए धन्यवाद.