- बीजेपी की सीटें 2015 के चुनाव की अपेक्षा इस बार अधिक आयी हैं
- इस बार राजद का माय (MY) समीकरण इस चुनाव में ध्वस्त हो गया
पोलटॉक के लिए सच्चिदानंद सच्चू की ग्राउंड रिपोर्ट |
इस बार के बिहार चुनाव में मुख्य रूप से दो पक्ष नजर आ रहे थे। एक पक्ष वह था जो एनडीए के साथ दिख रहा था और दूसरा पक्ष वह था जो महागठबंधन के साथ दिख रहा था। विश्लेषकों की नजर इन वोटरों पर आसानी से चली जाती थी। और इन खेमों के बीच जो दूरी नजर आ रही थी, विश्लेषक उस हिसाब से हार – जीत का विश्लेषण कर रहे थे। इस बिहार विधानसभा चुनाव में इन दोनों खेमों का शोर इतना था कि किसी की नजर इन दोनों खेमों से इतर जो साइलेंट वोटर थे, उन पर किसी की नजर नहीं गयी। लिहाजा विश्लेषकों ने इन साइलेंट वोटरों पर ध्यान नहीं दिया। महागठबंधन का ध्यान भी इन वोटरों पर नहीं गया जिसका फायदा एनडीए ने आसानी से उठा लिया। बावजूद इसके इस चुनाव में राजद और भाजपा दोनों लाभ में है। बीजेपी की सीटें 2015 के चुनाव की अपेक्षा इस बार अधिक आयी हैं। लेकिन यह कहना गलत होगा कि राजद का माय समीकरण इस चुनाव में ध्वस्त हो गया है। राजद का माय समीकरण इस चुनाव में भी अटल रहा। हं, इस चुनाव में इस समीकरण में सेंधमारी की कोशिश जरूर की गयी।
एमआईएम ने बिगाड़ा महागठबंधन का खेल
वोट बैंक के लिहाज से देखें तो सीमांचल का क्षेत्र राजद के लिए कंफर्ट जोन रहा है। पिछली बार कांग्रेस को सीमांचल में नौ सीटें मिली थीं। इस बार सीमांचल में एमआईएमआई के पास पांच सीटें हैं। सीमांचल में विधानसभा की 24 सीटें हैं। दो – तीन सीटों को छोड़ दें तो यहां की अधिकतर सीटें राजद के जनाधार वाली सीटें हैं। लेकिन इन सीटों पर एमआईएम ने महागठबंधन का खेल बिगाड़ दिया। अगर इन सीटों पर एमआईएम का कोई प्रत्याशी नहीं रहता या फिर एमआईएम महागठबंधन के साथ रहता तो स्थिति कुछ और हो सकती थी। सीमांचल में एमआईएम ने पांच सीटों पर जीत दर्ज की है। आंकड़ों पर नजर डालें तो यहां की अन्य सीटों पर भी महागठबंधन समर्थित उम्मीदवार को भारी नुकसान पहुंचाने का काम एमआईएम ने किया है। सीमांचल में अगर एमआईएम महागठबंधन से अलग होकर चुनाव नहीं लड़ता तो यहां से महागठबंधन के खाते में कम से कम दस से बारह सीटें मिल सकती थीं।
खराब हुआ कांग्रेस का प्रदर्शन
इस चुनाव में कांग्रेस ने उम्मीद से खराब प्रदर्शन किया है जबकि लेफ्ट ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया। कांग्रेस विधानसभा की 70 सीटों पर चुनाव लड़ी। 70 में से 19 सीटें ही कांग्रेस के खाते में गयी। इसके मुकाबले लेफ्ट पार्टियां 29 सीटों पर चुनाव लड़ीं और 14 पर जीत हासिल की। हो सकता है कि लेफ्ट पार्टियों को अगर इससे अधिक सीटें मिलीं तो स्थिति कुछ और हो सकती थी। लेकिन 70 सीटों पर चुनाव लड़कर कांग्रेस ने महागठबंधन का बेड़ा गर्क कर दिया। इन सीटों में अगर कुछ राजद के पास रहती तो हो सकता है कि राजद प्रत्याशी यहां से आसान जीत हासिल कर पाते। इस चुनाव में कांग्रेस ने तेजस्वी और राजद के वोट बैंक के सहारे ही अपनी नैया पार लगाने की कोशिश की लेकिन इस कोशिश में उसे सफलता हासिल नहीं हुई। कांग्रेस ने अपने तरीके से चुनाव लड़ने और चुनाव को जीतने की कोशिश भी नहीं की। अगर कांग्रेस ने यह कोशिश की होती तो पार्टी का शीर्ष नेतृत्व बिहार में चुनाव प्रचार करने जरूर आता लेकिन कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इस चुनाव से अलग – थलग ही रहा। लिहाजा इस चुनाव में जदयू के बाद अगर कोई पार्टी नुकसान में है तो वह कांग्रेस है।
महिला वोटरों ने किया कमाल
इस चुनाव में सबसे साइलेंट मोड में महिलाएं ही थीं। वे सबकुछ देख – सुन रही थीं लेकिन उन्होंने वही किया जो उन्हें करना था। दूसरी तरफ इन साइलेंट वोटरों की तरफ किसी का ध्यान भी नहीं जा रहा था। प्रतिद्वंद्वी पार्टियों की तो बात ही छोड़िए, सर्वे करने वाली पार्टियों का ध्यान भी इस ओर नहीं गया। 2015 में शराबबंदी का आश्वासन देकर ही नीतीश कुमार ने महिला वोटरों को अपनी ओर आकर्षित किया था। इन पांच सालों में शराबबंदी लागू भी हुई और विफल भी हुई। इस शराबबंदी का लाभ महागठबंधन इसलिए नहीं उठा पाया क्योंकि उसे लगने लगा था कि शराबबंदी विफल है और लोग इस विफलता से भलीभांति परिचित हैं। दूसरी तरफ महिला वोटरों का एक तबका ऐसा था जो यह तो जानता था कि बिहार में शराबबंदी पूरी तरह विफल है। धड़ल्ले से शराब की होम डिलीवरी हो रही है लेकिन उन्हें इस बात का संतोष था कि पहले की तरह अब लोग शराब के नशे में हुल्लड़बाजी नहीं करते। चौक – चौराहों पर महिलाओं को देखकर होनेवाली भद्दी टिप्पणियां बंद हो गयी हैं। लिहाजा उन्हें लगा कि नीतीश कुमार जो कहते हैं, वह करते हैं। इन वोटरों ने शराब के नशे में होनेवाली हुल्लड़बाजी के बंद होने को ही शराबबंदी मान लिया, जिसका असर एनडीए के वोट बैंक पर भी दिख रहा है।
‘हनुमान’ ने निभाई अपनी भूमिका
झारखंड की एक पार्टी है आजसू। यह पार्टी अपने दम पर एक सीट भले ही न जीत सकती हो लेकिन यह पार्टी अपने दम पर किसी को भी पटखनी दे सकती है। बिहार चुनाव में एलजेपी की यही भूमिका रही। एलजेपी सुप्रीमो चिराग पासवान बार – बार यह कहते भी रहे कि वे मोदी के हनुमान हैं। मोदी के इस हनुमान ने सचमुच मोदी को लाभ पहुंचाने का काम किया और नीतीश कुमार को नुकसान पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एलजेपी को भले ही इस चुनाव में एक सीट पर ही संतोष करना पड़ा हो लेकिन मोदी के हनुमान मोदी के काम आ गये, यह बात चुनावी नतीजों से साफ हो गयी है।